असंयतसम्यग्दृष्टि Devoid of Right Conduct But Right Belief
णो इंदिएसु विरदो, णो जीवे थावरे चावि।
जो सद्दहइ जिणत्तं, सम्माइट्ठी अविरदो सो।।७।।SSu
इन्द्रिय विषय विरक्त नहीं, जीव न हिंसा त्याग।
तत्त्वार्थ में होें श्रद्धा , अविरत सम्यक् जाग॥२.३२.७.५५२॥
जो इन्द्रिय विषयों व हिंसा से अनुरक्त नही है पर तत्वार्थ पर श्रद्धा रखता है वह व्यक्ति अविरतसम्यक्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है।
He who has not vowed to abstain from indulgence in the senses and from hurting the mobile and immobile living beings; although he has firm faith in the doctrines propounded by the Jina. This stage is said to be of a person of right vision without abstinence (Avirata-Samyagdrsti). (552)