प्रतिक्रमण Expiation

 

दव्वे खेत्ते काले, भावे य कया-वराह-सोहणयं।
णिंदण-गरहण-जुत्तो मण-वच-कायेण पडिक्कमणं।।१४।।SSu

 

द्रव्य क्षेत्र क्षण भाव के, स्वनिन्दा मन के पाप।
काय वचन मन से करे प्रतिक्रमण का जाप॥२.२७.१४.४३०॥

 

निन्दा से युक्त मन वचन काय द्वारा, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के दोषों की आचार्य के समक्ष आलोचनापूर्वक शुद्धि करना प्रतिक्रमण कहलाता है।

 

The self analysis and expiations, before the Head of the order by a saint for his faults (Pratikramana) consists of the purification process which includes confession (Alochana) and condemnation of faults (errors), committed through mind, speech and body as regards his conduct as a full vower. (430)

 

आलोचण-णिंदण-गरहणाहिं अब्भुट्ठिओ अकरणाए।
तं भाव-पडिक्कमणं, सेसं पुण दव्वदो भणिअं।।१५।।SSu

 

स्वालोचना और निन्दा, पुनरावृत्ति निषेध।
प्रतिक्रमण है भाव यही, शेष द्रव्य के भेद॥२.२७.१५.४३१॥

 

स्व आलोचना के द्वारा प्रतिक्रमण करने मे तथा पुन: दोष करने मे उद्यत साधु के भावप्रतिक्रमण होता है। शेष सब तो द्रव्यप्रतिक्रमण है।

 

It after having confessed, blamed and condemned an offence committed by him (a monk) makes resolve not to repeat this offence in the future; it is a real repentance on his part-everything else done in this connection constitutes but a formal repentance. (431)

 

मोत्तूण वयण-रयणं, रागादी भाव-वारणं किच्चा।
अप्पाणं जोझायदि, तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं।।१६।।SSu

 

 

मात्र वचन से मुक्त रहे, त्याग राग सब भाव।
ध्यान आत्मा का  धरे, शुद्ध प्रतिक्रमण प्रभाव॥२.२७.१६.४३२॥

 

वचनरचना मात्र को त्याग कर जो साधु रागादि भावों को दूर कर आत्मा को ध्याता है, उसी के पारमार्थिक प्रतिक्रमण होता है।

 

A monk who meditates upon his soul after renunciation of attachment and other passions, refraining from talking about them, practises repentance in the true sense. (432)

 

झाण-णिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्व-दोसाणं।
तम्हा दु झाण-मेव हि, सव्व-दिचारस्स पडिकमणं।।१७।।SSu

 

 

ध्यानलीन साधु रहे, सब दोषों को मार।
सर्वोत्तम ही ध्यान है, प्रतिक्रमण अतिचार॥२.२७.१७.४३३॥

 

ध्यान मे लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है। इसलिये ध्यान ही समस्त दोषों का प्रतिक्रमण है।

 

A monk who becomes absorbed in meditation renounces all faults; therefore meditation alone is real repentance for all transgressions. (433)