आलोचना Self Criticise

 

 

अणाभोग-किदं कम्मं, जं किं वि मणसा कदं।
तं सव्वं आलोचेज्ज हु, अव्वाखित्तेण चेदसा।।२३।।SSu

 

दूजे जाने या नही, कर्म मन के रोग।
गुरु से कर आलोचना, सरल चित्त संयोग॥२.२८.२३.४६१॥

 

दूसरो द्वारा जाने गये कर्म आभोगकृत जाने गये कर्म अनाभोगकृत कर्म है। दोनों प्रकार के कर्मों की आलोचना अपने गुरु से करनी चाहिये।

 

An evil act done unintentionally or intentionally all this has to be confessed with an unperturbed mind. (461)

 

जह बालो जपन्तो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ।
तं तह आलोइज्जा, माया-मय-विप्पमुक्को वि।।२४।।SSu

 

बालक अपने काम को, माँ को देत बताय।
कर स्वदोष  आलोचना, साधु सम्मुख आय॥२.२८.२४.४६२॥

 

जैसे बालक अपने कार्य को माता के समक्ष व्यक्त कर देता है वैसे ही साधु के समक्ष अपने दोषों की आलोचना माया मद त्याग कर करनी चाहिये।

 

Just as a child speaks of its good and bad acts in a straight-forward manner to mother, similarly one ought to confess one’s guilt with a mind free from deceit and pride. (462)