उत्तम ब्रह्मचर्य Supreme Celibacy
जहा पोमं जलं जायं, नोवलिप्पइ वारिणा।
एवं अलित्तो कामेहिं, तं वयं बूम माहणं।।२८।।SSu
जल में ज्यूँ उपजे कमल, जलमुक्त राखे काय।
काम भोग से मुक्त रहे, वो ब्राह्मण कहलाय॥१–९–२८–१०९॥
जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नही होता, इसी प्रकार काम भोग के वातावरण में जन्मा मनुष्य उससे लिप्त नही होता, उसे हम ब्राह्मण कहते है।
We call him a Brahmin who remains unaffected by objects of sensual pleasures like a lotus which remains untouched by water though born in it. (109)
जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो।
तं जाण बंभचरियं, विमुक्क-परदेह-तत्तिस्स।।३॰।।SSu
जीव ब्रह्म का रूप है, चर्या उसकी जान।
देह मान से मुक्त रहे, ब्रह्मचर्य पहचान॥१–९–३०–१११॥
जीव ही ब्रह्म है। देह आसक्ति से मुक्ति की जो चर्या है वही ब्रह्मचर्य है।
The soul is Brahman, so the activity regarding the self of a monk-who refrains himself from seeking enjoyment through other’s body (i. e. sexual enjoyment), is called Brahmacarya (celibacy).(111)
सव्वंगं पेच्छंतो, इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं।
सो बम्हचेरभावं, सक्कदि खलु दुद्धरं धरिदुं।।३१।।SSu
देह देख नारी कभी, उपजे ना दुर्भाव।
ब्रह्मचारियों सा रहे, दुर्लभ समझ स्वभाव॥१–९–३१–११२॥
स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखते हुए भी जो इनमें दुर्भाव नही रखता वही वास्तव में ब्रह्मचर्य भाव को धारण करता है।
He whose mind remains undisturbed and in whom, no ill-intention develops in respect of women, even after looking at all the parts of woman, he observes the most difficult but pious virtue of celibacy. (112)
जउ-कुम्भे, जोए उवगूढे, आसभितत्ते नासमुवयाइ।
एवित्थियाहि अणगारा, संवासेण णास-मुवयंति।।३२।।SSu
घड़ा लाख का अगन संग , शीघ्र होता नाश।
साधु व्रत भी नष्ट हो, स्त्री से जब सहवास॥१–९–३२–११३॥
जैसे लाख का घड़ा अग्नि के पास नष्ट हो जाता है वैसे ही स्त्री सहवास से मुनि व्रत नष्ट हो जाता है।
Just as a jar made of lac (sealing wax) when placed near fire soon gets melted and perished. Similarly a monk who moves in the company of women looses his character. (113)
ए ए य संगे समइक्कमित्ता, सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा।
जहा महासागर-मुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा।।३३।।SSu
औरत की लत छोड़ सके, बाक़ी लत ना भार।
गंगा भी छोटी लगे, सागर करले पार॥१–९–३३–११४॥
जो मनुष्य स्त्री से आसक्ति को पार पा जाता है उसके लिये शेष आसक्तियाँ वैसी है जैसे सागर पार कर जाने वाले के लिये गंगा।
The man, who conquers the attachment with women, can more easily conquer all other attachments, as easily as who has crossed an ocean, can easily cross the river Ganges. (114)
जह सीलरक्खयाणं पुरिसाणं णिंदिदाओ महिलाओ।
तह सीलरक्खियाणं, महिलाणं णिंदिदा पुरिसो।।३४।।SSu
संग रहे जब नारियाँ, साधू निन्दनीय नाम।
शील रक्षिका स्त्री भी, संग पुरुष बदनाम॥१–९–३४–११५॥
जैसे ब्रह्मचारी पुरुष के लिये स्त्रियाँ वर्जित है वैसे ही शीलरक्षिका स्त्रियों के लिये पुरुष वर्जित है।
Just as women become censurable by men observing celibacy, similarly men become censurable by women observing celibacy. (115)
किं पुण गुण-सहिदाओ, इत्थीओ अत्थि वित्थड जसाओ।
णरलोग-देवदाओ, देवेहिं दि वंदणिज्जाओ।।३५।।SSu
कई गुणवती नारियाँ, फैला यश का गान।
पृथ्वी लोक के देव से, देव करे सम्मान॥१–९–३५–११६॥
कई शीलगुण संपन्न स्त्रियाँ ऐसी भी है जिनका यश सर्वत्र व्याप्त है। वे मनुष्य लोक की देवियाँ है और देवों के द्वारा वंदनीय है।
But, there are illustrious women of good character and conduct, whose fame is wide spread, who are goddesses on this earth and are even adorned by gods. (116)
तेल्लोक्काडवि डहणो, कामग्गी विसय-रुक्ख-पज्जलिओ।
जोव्वण-तणिल्लचारी, जं ण डहइ सो हवइ धण्णो।।३६।।SSu
जले वृक्ष से लोग यहाँ , बहे काम की आग।
है महान वो आत्मा, यौवन से ना राग॥१–९–३६–११७॥
विषयरुपी वृक्षों से लगी कामाग्नि तीनों लोक को जला देती है लेकिन जो इस यौवन अग्नि से नही जलता वो साधु धन्य है।
The sensual fire fed by the trees of desires can burn the forest of the three world, one is blessed whose grass of youthful life remains unburnt by this fire. (117)