उत्तम आकिंचन्य Supreme Detachment
होऊण य णिस्संगो, णिय-भावं णिग्गहित्तु सुह-दुहदं।
णिद्दंदेण दु वट्टदि, अणयारो तस्स-किंचण्हं।।२४।।SSu
भाव रखे सुख–दुख नहीं, कोई संग न जान।
बिना द्वंद्व विचरण करे, धरम अपरिग्रह मान॥१–९–२४–१०५॥
जो मुनि सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर, अपने सुख व दुख भावो का निग्रह कर निर्द्वन्द्ध विचरता हा उसके आकिंचन्य/अपरिग्रह धर्म होता है।
That monk alone acquires the virtue of non possessiveness (Akinchanya-dharma), who renouncing the sense of ownership and attachment and who wanders absolutely care free (Nerdvanda) after controlling all their pleasant and unpleasant thought actions. (105)
अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसण-णाण-मइओ सदा रूवी।
णवि अत्थि मज्ज किंचिवि अण्णं परमाणु-मित्तं पि।।२५।।SSu
शुद्ध ज्ञानमय एक मैं, नित्य अरूप ही मान।
परम अणु भी नही रखूँ , आकिंचन्य धर्म जान॥१–९–२५–१०६॥
मै एक शुद्ध, दर्शन–ज्ञानमय, नित्य और अरुपी हूँ, इसके अतिरिक्त परमाणुमात्र भी वस्तु मेरी नही है, यही आकिंचन्यधर्म है।
I am alone, pure, eternal and formless and possessing the qualities of apprehension and comprehension except these is nothing, not even an particle, that is my own. (106)