उत्तम त्याग Supreme Renunciation

 

णिव्वेद तियं भावइ, मोहं चइऊण सव्व दव्वेसु।
जो तस्स हवे चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं।।२२।।SSu

 

भाव रहे वैराग्य के , द्रव्य मोह का त्याग।
त्याग धर्म का सार यही, कथ्य यही वीतराग॥१२२१०३॥

 

जितेन्द्र देव का कहना है कि सब द्रव्यों में होने वाले मोह को त्यागकर जो अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्याग धर्म होता है।

 

Supreme Jina has said that true renunciation (tyaga dharma) consists in developing indifference towards the three, namely the world, the body and the enjoyment, through detachment for material objects. (103)

 

जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठिकुव्वइ।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चइं।।२३।।SSu

 

चाहे मीठा भोग हो, पीठ रहे उस ओर।
द्रव्य त्याग मन से करे, त्यागी धर्म विभोर॥१२३१०४॥

 

त्यागी वही कहलाता है जो प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उसकी ओर पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगो का त्याग करता है।

 

He alone can be said to have truly renounced everything who has turned his back on all available, beloved and dear objects of enjoyment possessed by him. (104)