श्रुतज्ञान के भेद Types of Scriptural knowledge
– अंगप्रविष्ट Primary canons
– अंगबाह्य Secondary canons
श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥१.२०॥TS
श्रुत ज्ञान मति पूर्व है, इसके है दो भेद।
बारह अंगप्रविष्ट है, अंगबाह्य कई भेद॥१.२०॥
मति ज्ञान के बाद श्रुत ज्ञान होता है। वह श्रुत ज्ञान दो प्रकार का है। अंगप्रविष्ट व अंगबाह्य। अंगप्रविष्ट बारह प्रकार का व अंगबाह्य अनेक प्रकार का होता है।
Scriptural knowledge is preceded by sensory knowledge. It is of 2 types (Angapravist & Angabahya), twelve types and many types respectively.
अत्थादो अत्थंतर-मुवलंभो, तं भणंति सुदणाणं।
आभिणिबोहिय-पुव्वं, णियमेणिह सद्दजं पमुहं।।५।।SSu
अर्थ शब्द से ग्रहण करे, कहलाता श्रुतज्ञान।
मतिज्ञान पूर्वक रहे, शब्द मुख्य पहचान॥४.३८.५.६७८॥
शब्द को जानकर उस पर से अर्थान्तर को ग्रहण करना श्रुतज्ञान है। यह ज्ञान नियमत: आभिनिबोधिक ज्ञानपूर्वक होता है। इसके दो भेद है। लिंगजन्य और शब्दजन्य। धुँआ देखकर होने वाला अग्नि का ज्ञान लिंगज है और वाचक शब्द सुन या पढ़ कर होने वाला ज्ञान शब्दज है। आगम मे शब्दज श्रुतज्ञान का प्राधान्य है।
(Like Reasoning by inference/Anuman/linga-jnan), the scriptural knowledge consists of knowing or grasping the clear meaning expressed in words (Vacyartha) on the basis of the knowledge of words of “Arhat’s” (Sabda/Arhta). This knowledge is as a rule the result of sensory knowledge (Abhinibodhak/Matijnan). The scriptural knowledge is of two kinds: 1. Verbal (Sadba-janya) and 2. Non-verbal (to know about fire by seeing smoke in the sky is nonverbal scriptural knowledge and the knowledge derived from works read or spoken is verbal scriptural knowledge). Again there is predominance of verbal scriptural knowledge. 678
मइ-पुव्वं सुय-मुत्तं, न मई सुय-पुव्विया विसोसाऽयं।
पुव्वं पूरण-पालण-भावाओ जं मई तस्त।।७।।SSu
मतिज्ञान समझो प्रथम, बाद शब्द पहचान।
श्रुत नहीं मति ज्ञान है, प्रथम मति सम्मान॥४.३८.७.६८०॥
आगम मे कहा गया है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञानपूर्वक नही होता है। यही दोनों ज्ञानों मे अन्तर है।
The sensory knowledge includes (Precedes and assists) the scriptural knowledge; not vice versa. This is the main difference in between these two kind of knowledge. The word “Purva” has been derived from the root (dhatu) “pri” which means fastening up/complying with/palan and completing/filling/purana. As the sensory knowledge completes and complies with scriptural knowledge it (sensitive-knowledge) precedes it (scriptural) (knowledge). Hence, scriptural knowledge has been said to be mingles with sensory knowledge.680