[vc_row][vc_column][vc_column_text]
निर्विचिकित्सा Free from Disgust
जो ण करेदि जुगुप्पं, चेदा सव्वेसि मेव धम्माणं।
सो खलु णिव्विगिच्छां, सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।१८।।SSU
ग्लानि जो करता नहीं, वस्तु धर्म पहचान।
निर्वचिकित्सा गुण कहें सम्यक दृष्टि ज्ञान॥२.१८.१८.२३६॥
जो समस्त वस्तुओं के धर्मों को पहचान कर उनसे ग्लानि नही करता है वो निर्विचिकित्सा धारक सम्यग्दृष्टि है।
He who does not exhibit contempt or disgust towards any of the things, is said to be the right believer. (236)
स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते।
निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता॥१३॥ RKS
अपवित्र यह शरीर है, रत्नत्रय पवित्र जान।
तन से ग्लानि हो नहीं, निर्विचिकित्सा पहचान॥१३॥
यह शरीर स्वभाव से अपवित्र पर रत्नत्रय से पवित्र जानकर ग्लानि रहित गुणों में प्रेम होना निर्विचिकित्सा अंग माना गया है।
The body is impure by nature but pure by virtues of three jewels, by knowing this not to have feeling of disgust is nirvichikitsa anga of right faith.
[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]