संग्रह नय Generic view

 

 

अवरो-प्पर-मविरोहि, सव्वं अत्थि त्ति सुद्ध संगहणे।
होइ तमेव असुद्धं, इगि-जाइ-विसेस-गहणेण।।१५।।SSu

 

 

आपस में रहते विरुद्ध, शुद्ध समग्र पहचान।
ग्रहण आंशिक ही करे, अशुद्ध संग्रहनय जान॥४.३९.१५.७०४॥

 

 

संग्रहनय के दो भेद है। शुद्ध और अशुद्ध। शुद्धसंग्रहनय मे परस्पर का विरोध न करके सत् रुप से सबका ग्रहण होता है। उसमे से एक जातिविशेष को ग्रहण करने से वही अशुद्धसंग्रहनय होता है।

 

 

The General stand point (samgratanaya) is of two kinds: 
1. Pure General and
2. Impure General.
In the former (i.e. pure general) every object is explained by way of existence (isness/satrupi) irrespective of contradictions (and differences) of them. When a particular specie is taken up the impure-General stand-point is re’sorted to. (704)